भारतीय संस्कृति और सभ्यता में उत्सवों का अपना एक अहम स्थान है। अतीत से लेकर वर्तमान तक भारतीय लोक का प्रकृति से जुड़ाव और प्रकृति से संवाद की परंपरा हमारी संस्कृति को विशिष्ट बनाती है। बसंत ऋतु का आगमन हो चुका है। बसंत प्रकृति की आराधना करने का उत्सव है। प्रकृति के सबसे खूबसूरत रंग इसी ऋतु में दिखते हैं। बसंत को ऋतुओं में सर्वोत्तम माना गया है। यह रंग-बिरंगे फूलों के खिलने का समय है, नव पल्लवों के आगमन का समय है, पवित्र बयार का समय है, धरती के शृंगार का समय है। बसंत ऋतु ने महर्षि बाल्मीकि से लेकर आधुनिक कवियों को भी अपनी ओर आकर्षित किया है। हिंदी साहित्य में इस ऋतु के कई मोहक वर्णन हैं। संस्कृत के भी अधिकांश कथाओं, काव्यों व नाटकों में कहीं न कहीं बसंत ऋतु का वर्णन मिल ही जाता है। बसंत का महत्व इसी से समझा जा सकता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भागवत गीता के अध्याय 10, श्लोक 35 में ‘ ऋतुनां कुसुमाकर:’ कहकर खुद को ऋतुओं में बसंत बताया है।
प्रकृति के प्रति हमारी जिम्मेदारी इसलिए भी और बढ़ गई है कि बीते सालों में हमने कोविड-19 महामारी का दंश झेला है। आज भी हम इससे पूरी तरह उबर नहीं पाए हैं। आधुनिक जीवन शैली के कारण हम प्रकृति से दूर होते जा रहे। जिसका सीधा असर हमारे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ रहा है। प्रकृति से दूर होने के कारण विभिन्न विकारों से ग्रसित होते जा रहे। हालांकि इस महामारी से बचाव के उपायों ने हमें प्रकृति से फिर से जुड़ने का एक संदेश दे दिया है। कुछ हद तक जोड़ा भी है। प्रकृति में सारी वेदनाओं को हर लेने या भुलाने की शक्ति है। हम जितना प्रकृति से जुड़ेंगे, उतने ही हृदय से चैतन्य होंगे। हमारा मन उल्लास और स्फूर्ति से भरा होगा। प्रकृति के श्रेष्ठ ऋतु बसंत का अर्थ है कि इस उत्सव के उल्लास में सब वेदनाओं, कष्टों को भूल जाना। पुराने का झड़ना नए का खिलना, दुःख से उल्लास की ओर जाना ही बसंत है। तो आइए हम अपने रोम-रोम में प्रकृति का अनुराग भर लें। हमें हर हालत में प्रकृति के सानिंध्य में जाना ही होगा। इस बसंत में प्रकृति की रक्षा और संवर्धन का संकल्प लें। बसंत ऋतु में प्राकृतिक परिवर्तन के गूढ़ रहस्य और संदेश को समझें और उसे आत्मसात कर जीवन को आनंदमय बनाएं।