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*अगर नहीं चेते तो मुश्किल होगा बच्चों को बचाना….* *जानिए क्यों बढ़ रही बच्चों में विध्वंसात्मक प्रवृत्ति(विक्रांत पाठक, विशेष संपादकीय टिप्पणी) *

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(विक्रांत पाठक, विशेष संपादकीय टिप्पणी)
मोबाइल नहीं देने पर 15 वर्षीय छात्रा ने की खुदकुशी ‘,ज्यादा देर फोन चलाने से मना किया तो किशोर ने पिता को मारा चाकू ‘, दुर्भाग्य से बीते कुछ सालों में ऐसी ख़बरों की संख्या बढ़ी है। उससे बड़ी विडंबना यह रही है कि ऐसी घटनाएं सिर्फ ख़बरें बन कर रह गईं। इस बात पर कभी गहन विमर्श नहीं हुआ कि वे कौन सी परिस्थितियां रहीं, जिसके कारण हमारे बच्चे स्मार्ट फोन के न केवल एडिक्ट, बल्कि उस पर डिपेंड होते जा रहे हैं? क्यों किशोरों के व्यवहार में विध्वंसात्मक प्रवृत्ति बढ़ रही? क्या हम ऐसी घटनाओं को रोक नहीं सकते? ऐसे कई सवाल हैं, जिन पर अगर गम्भीरता से नहीं सोचा गया, तो भविष्य में परिणाम बेहद दुःखद हो सकते हैं। मुझे याद आता है अशअर नजमी का ये शेर-
“सौंपोगे अपने बा’द विरासत में क्या मुझे
बच्चे का ये सवाल है गूँगे समाज से”
आज के युग में स्मार्टफोन हर किसी जरूरत बन गया है। कोविड के पेंडेमिक पीरियड में ऑन लाइन कक्षाओं के संचालन से यह छात्रों की जरूरत भी बनता गया। मानसिक परिपक्वता के अभाव में किशोर इसके सकारात्मक-नकारात्मक इस्तेमाल को लेकर गम्भीर नहीं हैं। रिसर्च यूनिवर्सिटी के रूप में विख्यात जॉर्जिया विश्वविद्यालय की ओर से हाल ही में करवाए गए एक रिसर्च में यह बात सामने आयी है कि कंप्यूटर गेम्स खेलने, सोशल मीडिया का इस्तेमाल करने, मेसेज भेजने और विडियो चैटिंग करने के लिए मोबाइल फोन इस्तेमाल करने वाले किशोर, इन डिवाइसेज से दूर रहने वाले किशोरों के मुकाबले ज्यादा दुखी रहते हैं। स्मार्टफोन के लगातार इस्तेमाल से किशोरों के बीच अवसाद, बेचैनी और अनिद्रा जैसी समस्याएं बढ़ रही हैं। मोबाइल के जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल की वजह से दिमाग पर भी बुरा असर होता है। इसके रेडिएशन से मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव पड़ रहा है, साथ ही इससे किशोरों का मानसिक विकास भी बाधित हो रहा है।
थोड़ा और गहराई में जाएं, तो दो साल पहले कोविड-19 के पैर पसारने के बाद कोरोना वायरस के संक्रमण को रोकने के लिए पूरे देश में लॉक डाउन लगाया गया था। स्टे होम-स्टे सेफ, को मानते हुए लोग घरों से नहीं निकल रहे थे (अपवादों को छोड़कर)। यह लॉक डाउन लंबा चला था। इसके बाद अगले साल भी कमोबेश यही स्थिति रही। निश्चित रूप से इसका प्रभाव लोगों की नियमित दिनचर्या में पड़ा। जिसके कारण लोगों के व्यवहार में भी काफी कुछ बदलाव देखा जा रहा। मानसिक स्वास्थ्य की बात करें, तो इसका सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रभाव लोगों के मन पर पड़ा है। सबसे अधिक व्यवहार परिवर्तन बच्चों व किशोरों में दिख रहा है, इस बारे में आगे चर्चा करेंगे।
पहले, लॉक डाउन के दौरान घर के अंदर परिवार की दिनचर्या कैसी रही, इसकी बात करते हैं। लॉक डाउन के दौरान घर के अधिकांश वयस्क लोग टीवी देखते हुए या मोबाइल के माध्यम से सोशल मीडिया में व्यस्त रहे थे। कोरोना पर टीवी चैनलों में लगातार कवरेज जारी था, सोशल मीडिया में भी सही/गलत जानकारी भरी पड़ी थी। कोरोना को लेकर नई-नई जानकारी लेने के लिए काफी देर तक टीवी/सोशल मीडिया से जुड़े रह रहे थे और पेनिक हो रहे थे। इसके कारण लोगों में एंजायटी के लक्षण आ रहे थे। जो अब भी बहुत लोगों में देखे जा रहे हैं। कोरोना संक्रमण से दूर रहने/बचने के लिए लोग जतन में लगे हैं। पेंडेमिक सीजन के शुरुआती दौर में कई बार एंजायटी के कारण अनजाने और अनावश्यक रूप में बार-बार बचाव के उपायों को दोहरा रहे थे ( बगैर ज़रूरत के भी), जिससे कई लोगों में ओसीडी ( obsessive compulsive disorder) के लक्षण भी डवपल हुए हैं। जैसे बार-बार घरों के सामान, दरवाजे को साफ करना, कपड़े धोना, हाथ साफ करना आदि। अगर आप घर में हैं, संक्रमित नहीं हैं, या किसी बाहरी व संक्रमित लोगों के कॉन्टेक्ट में नहीं आए हैं, तो बार-बार यह करने की ज़रूरत नहीं है। हाँ, सामान्य रूप से अपनाई जाने वाली सफाई प्रक्रिया बहुत ज़रूरी है।
सामान्य रूप से परिवार के साथ घर में समय बिताना, सदस्यों को समय देना, चर्चा करना, छोटी-मोटी घरेलू समस्याओं का हल निकालने में कारगर होता है। दो सालों में हुए लॉक डाउन के समय वयस्क सदस्यों के टीवी/मोबाइल आदि में अधिकांश समय बिताने की प्रवृत्ति ज्यादा बढ़ गई थी। जिससे एक साथ रहने से एक परिवार में जो रिलेशनशिप मजबूत होना चाहिए था, वह कहीं न कहीं नदारद है।
अब आते हैं किशोरों व बच्चों में। शुरुआती दौर में बच्चे कोरोना नाम से तो परिचित हो चुके थे, पर उसकी भयावहता और खतरे के प्रति अनजान ही थे। घर से बाहर गार्डन में, सड़क/गलियों में खेलने वाली बच्चों की दिनचर्या बंद हो गई थी। कई बार बच्चे अपने पैरेंट्स से बाहर खेलने की जिद करते थे, तो ऐसे में उन्हें डांट और मार भी खानी पड़ती थी। बच्चों की इस पूरी स्थिति को देखें, तो इन परिस्थितियों में बच्चों में जिद करने, एग्रेशन, चिड़चिड़ापन की प्रवृत्ति बढ़ी है। कई बच्चों के कोमल मन में पैरेंट्स के साथ डी-अटैचमेंट (अलगाव) भी बढ़ा है। ऑन लाइन कक्षाओं के संचालन से किशोरों के हाथों में देर तक स्मार्ट फोन रहने लगा है। पढ़ाई के अलावा वे दोस्तों से चैटिंग, गेम्स आदि में ज्यादा इन्वाल्व रहने लगे हैं और परिवार के सदस्यों के अलावा सामाजिक संबंधों से कटने लगे हैं। फोन के प्रति एडिक्शन और डिपेंडेंसी बढ़ती गई। जिसका सीधा असर उनके व्यवहार पर पड़ रहा।
क्या करें पैरेंट्स-
पैरेंट्स यह ध्यान रखें कि उनके बच्चे टीवी/मोबाइल व सोशल मीडिया से दूरी बनाकर उसमे सीमित समय के लिए इन्वाल्व हों। ऐसा करने के लिए डांटना या मारना नहीं चाहिए, बच्चों को प्यार से स्मार्ट फोन के नकारात्मक पहलुओं के बारे में बताएं। गार्डनिंग, कूकिंग आदि रुचियों के काम के प्रति अपने बच्चों को प्रेरित करें। परिवार के सदस्य आपस में बातें करें, एक दूसरे से फ्रेंडली होकर उनकी परेशानियों को सुने। अच्छा-अच्छा अनुभव साझा करें। घर में खुशनुमा माहौल बनाये रखें। बच्चों को छोटे-छोटे घरेलू और उनकी रुचियों के काम में व्यस्त रखें। अपने बचपन के रोचक किस्से बच्चों को सुनाएं। उनके साथ समय बिताएं। अगर बच्चों के व्यवहार में अचानक परिवर्तन दिख रहा हो, जैसे एकाकीपन बढ़ना, बात-बात में उग्र होना, इरिटेट होना, ज्यादा देर घर से बाहर रहना आदि तो इन लक्षणों को नजरअंदाज न करें।
बच्चों को ऐसे रख सकते हैं हैप्पी-
मस्तिष्क से कई रसायन (हार्मोन्स) स्त्रावित होते हैं, जिनका प्रभाव हमारे मूड पर पड़ता है। मूड को हैप्पी रखने में मुख्य रूप से ऑक्सीटोसिन, सिरोटोनिन, एंडोर्फिन व डोपामाइन हार्मोन्स की भूमिका रहती है। इन हार्मोन्स को अधिक सक्रिय कर मन को खुश रखा जा सकता है। इनमें ऑक्सीटोसिन को विश्वास और लगाव बढ़ाने वाला हार्मोन कहा जाता है। इस हार्मोन को अधिक सक्रिय करने के लिए बच्चों को पालतू जानवर के साथ खेलने/समय बिताने के लिए प्रेरित करें। सामूहिक खेलों में उन्हें इन्वाल्व करें। बच्चों को हल्का मसाज दें।
एंडोर्फिन हार्मोन को तनाव कम करने वाला व प्राकृतिक दर्द निवारक कहा जाता है। यह दर्द में सक्रिय होता है। खूब हंसने, हल्का एक्सरसाइज व योग करने से यह हार्मोन ज्यादा सक्रिय होता है।
इसी तरह डोपामिन हार्मोन शरीर को वह ऊर्जा देता है, जिसकी जरूरत मोटिवेशन के लिए, अपनी उपलब्धियों पर खुश रहने के लिए पड़ती है। इसे बूस्ट करने के लिए बच्चों को उनकी छोटी-छोटी उपलब्धियों के लिए सराहें। उनके लक्ष्य को छोटे-छोटे चरणों में बनाकर उसे एचीव करने के लिए प्रेरित करें। छोटी उपलब्धियां भी बच्चों को अच्छा एहसास कराएंगी।
सिरोटोनिन हार्मोन का स्राव शरीर में तब होता है, जब हम खुद को दूसरों से बड़ा या मजबूत पाते हैं। इस तरह सुरक्षा का एहसास और खुद के प्रति अच्छा महसूस होता है। इसे ज्यादा सक्रिय करने के लिए हर पल का आनंद लेने की सीख दें। चाहे दौर जैसा हो, उसमें खुशियों का पल खोजने के लिए बच्चों को प्रेरित करें….। लेखक के सहमति के बिना कॉपी पेस्ट करना कानूनी अपराध है।

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