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*केउ तो झूलै केउ तो झुलावेये, केव तो चवर डोलावयु ना…,जानिए क्या सामाजिक व मनोवैज्ञानिक महत्व है कजरी का…!*

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– विक्रांत पाठक

कई लोक परंपराएं हमारी धरोहर रहीं हैं। इन परंपराओं ने देश को अलग सांस्कृतिक पहचान दी है। सावन में भी कई पंरपराओं का अपना स्थान है। कजरी गाकर झूला झूलना भी इन्ही परंपराओं में से एक है। तेजी से हो रहे सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन ने इन परंपराओं पर काफी प्रभाव डाला है। अब ऐसी परंपराएं या तो अपना स्वरूप बदल चुकी हैं, या फिर पूरी तरह लुप्त हो चुकी हैं। सावन में विवाहिताओं के मायके जाने की भी पंरपरा रही है। मायके में वे अपनी पुरानी सहेलियों के साथ मिलकर खूब अठखेलियां करती थीं। सखियों के संग वे झूला लगाकर कजरी गाती थीं। उनकी यह परंपरा प्रकृति के भी निकट थी। जिसे गीतों के बोल के माध्यम से समझा जा सकता है। ऐसी परंपराओं का सामाजिक के साथ-साथ मनोवैज्ञानिक महत्व भी है। कजरी लोकगीत मुख्य रूप से विरह का गीत है। पहले इन गीतों के माध्यम से महिलाएं अपने अंदर की पीड़ा को व्यक्त करतीं थीं। वे अपना दु:ख आपस में बांट लेती थीं। जिससे विरह-वियोग का दुष्प्रभाव मस्तिष्क पर स्थाई नहीं होता था। जिससे अवसाद की स्थिति नहीं आती थी। एक साथ समूह में परंपराओं को निभाने से स्वस्थ मस्तिष्क का ही विकास होता है और समूह में एक-दूसरे के प्रति सहयोग की भावना आती है।

*मिर्जापुर से हुई है उत्पत्ति*

कजरी लोकगीत मुख्य रूप से बिहार के भोजपुरी बेल्ट व उत्तर प्रदेश के पूर्वी भाग में गाई जाती है। मिर्जापुर और उसके आसपास का क्षेत्र कजरी के लिए अधिक प्रसिद्ध है। कजरी की उत्पत्ति मिर्जापुर से मानी जाती है। कजरी गायन के 22 प्रकार हैं। इन गीतों में विरह का बहुत ही मार्मिक वर्णन मिलता है। कई गीत श्रृंगार रस के भी दिखाई देते हैं। कई गीतों में प्रकृति वर्णन का सुन्दर चित्रण मिलता है।

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