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*गणतंत्र के तंत्र से गायब होते लोक के बीच उम्मीद की किरण है देश के भविष्य किशोरों का विजन, हर कोई महान नहीं हो सकता पर हम छोटे-छोटे कार्य महानता से तो कर ही सकते हैं…..(विशेष संपादकीय टिप्पणी, विक्रांत पाठक)*

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जशपुरनगर।आज हम देश का 73 वां गणतंत्र दिवस मना रहे हैं। बीते इन 73 सालों में देश ने कई उतार-चढ़ाव देखा। आपातकाल का अंधेरा देखा, तो प्रत्यक्ष चुनाव के माध्यम से अपनी चुनी सरकार का उजाला भी देखा। पर क्या चुनी हुई सरकारें वास्तव में आज उम्मीद के उजाले दिखाती हैं? संविधान की कल्याणकारी सरकार की अवधारणा पर खरी उतरती हुई लोक कल्याणकारी हैं या सरकारें खुद के लिए कल्याणकारी शब्द को आत्मसात कर चुकी हैं? गणतंत्र में गण के ऐसे सवाल चुभते हैं, पर तंत्र की खराबी दूर करने के लिए ऐसे चुभते उपकरण ज़रूरी हैं। पर वर्तमान में सरकारों से चुभते सवाल एक सिरे से गायब ही हैं, या कह लें कि गणतंत्र के तंत्र से लोक शब्द गायब होता जा रहा है।
दरअसल, गणतंत्र शासन की ऐसी प्रणाली है जिसमें राष्ट्र के मामलों को सार्वजनिक माना गया है। यह किसी शासक की निजी संपत्ति नहीं होती है। देश के मुखिया को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जनता द्वारा निर्वाचित या नियुक्त किया जाता है। आधुनिक अर्थों में गणतंत्र से आशय सरकार के उस रूप से है जहां राष्ट्र का मुखिया राजा नहीं होता है। वर्तमान समय में
विश्व के 206 संप्रभु राष्ट्रों में से 135 देश आधिकारिक रूप से अपने नाम के साथ ‘रिपब्लिक’ शब्द का इस्तेमाल कर रहे हैं। भारत, अमेरिका, फ्रांस और रूस जैसे आधुनिक गणतंत्रों में कार्यपालिका को संविधान और जनता के निर्वाचन अधिकार द्वारा वैधता प्रदान की गई है।
मध्ययुगीन उत्तरी इटली में कई ऐसे राज्य थे जहां राजशाही के बजाय कम्यून आधारित व्यवस्था थी। सबसे पहले इतली के लेखक गिओवेनी विलेनी ने इस तरह के प्राचीन राज्यों को लिबर्टिस पापुली (स्वतंत्र लोग) कहा। उसके बाद 15 वीं शताब्दी में पहले आधुनिक इतिहासकार माने जाने वाले लियोनार्डो ब्रूनी ने इस तरह के राज्यों को ‘रेस पब्लिका’ नाम दिया। लैटिन भाषा के इस शब्द का अंगे्रजी में अर्थ है- पब्लिक अफेयर्स (सार्वजनिक मामले)। इसी से रिपब्लिक शब्द की उत्पत्ति हुई है।
भारत में लोकतंत्र की तमाम खूबसूरती के बीच जो एक धब्बा आता है वह लोकतंत्र के लोक और तंत्र के बीच बेहद नाजुक होता है। संसद में कई ऐसे बिल आते हैं, जो बिना चर्चा/बहस के पास होकर कानून का रूप ले लेते हैं। ऐसे बिलों में लोक हाशिए पर ही रहता है, तंत्र हावी रहता है। जनता के जिन सरोकारों के विषय में सरकारें (केंद्र व राज्य दोनों) जो निर्णय लेती हैं, उसमें इस गूंज का अभाव रहता है कि जनता क्या चाहती है, प्रभावी ये रहता है कि सरकार यह चाह रही, इसे जनता को मानना होगा। हमारे गणतंत्र के तंत्र से हाशिए में जा रहे लोक के बीच भी एक बात जो हमें उम्मीद देती है, वह है देश के भविष्य कहे जाने वाले किशोरों ( 13 से 18 आयु वर्ग) का देश के प्रति उनका विजन। शहरी सहित ग्रामीण अंचल के किशोरों से बात करने पर उनके जो विचार मिले, वह कहीं न कहीं गणतंत्र को मजबूत करने की दिशा में महत्वपूर्ण हैं। शहरी क्षेत्र के किशोर ये मानते हैं कि देश की और अधिक उन्नति तभी होगी जब हम इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के साथ ह्यूमैन रिसोर्सेस का अधिक से अधिक इस्तेमाल कर पाएं। उद्योग जगत में ऐसे इनोवेशन किये जाएं, जहां मानव श्रम के लिए ज्यादा स्थान सुलभ हो सके। वहीं ग्रामीण अंचल के किशोरों का मानना है कि जो इंफ्रास्ट्रक्चर शहरी क्षेत्रों में बढ़ाई जा रही, उसका मुंह ग्रामीण क्षेत्रों की मूल आवश्यकताओं को देखते हुए किया जाना चाहिए। प्राकृतिक, जैव विविधताओं और स्थानीय लोगों को ध्यान में रखकर अच्छी कार्ययोजना तैयार करने की ईमानदार पहल होनी चाहिए। जिससे गणतंत्र में गण के कल्याण की अवधारणा की सैद्धांतिक बातें धरातल में पुष्ट दिखे। बहरहाल, आइए हम आज एक नई दृष्टि से गण के इस पर्व के ईमानदार सहभागी बनें, खुश रहें, खुशियां बिखेरते रहें। यह सही है कि हर कोई महान नहीं हो सकता, पर हम छोटे-छोटे काम तो महानता के साथ कर ही सकते हैं। तो आइए हर वह छोटा काम करें, जो देश को मजबूत बनाए, हर उस छोटे काम में सहभागी बने जो देश हित में हो…शुभकामनाएं, जय हिंद

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