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*जशपुर दशहरा:- परम्परा बयां करती है जशपुर का इतिहास, जशपुर के दशहरा महोत्सव में भगवान बालाजी का विशेष महत्व होता है। लंका विजय और दशानन रावण के वध का नेतृत्व भगवान बालाजी ही करते हैं…क्यों होती है यहां अपराजिता पूजा, क्यों उड़ाये जाते हैं नीलकंठ… पढ़ें पूरी खबर…*

जशपुर का रियासतकालीन दशहरा...ऐसा दशहरा..

जशपुरनगर। विश्वबंधु शर्मा, सोनू जायसवाल। जशपुर के इतिहास के साथ रियासतकालीन परंपरा और जनजातीय संस्कृति को समेटे जशपुर दशहरा महोत्सव का अपना ही महत्व रहा है। जशपुर के इस आयोजन को बस्तर के बाद छत्तीसगढ़ का दूसरा बड़ा दशहरा उत्सव माना जाता है। नौ दिन तक चलने वाला यह महोत्सव आज लंका दहन के साथ ही संपन्ना हो जाएगा। जिला और पुलिस प्रशासन ने सुरक्षा की व्यापक व्यवस्था की गई है। शहर के रणजीता स्टेडियम में उमड़ने वाली भीड़ की संभावना को देखते हुए शहर में यातायात और वाहन पार्किंग की व्यवस्था की गई है। कोरोना संक्रमण के खतरे को देखते हुए शारीरिक दूरी और मास्क का उपयोग करने की अपील जिलेवासियों से की गई है।

परम्परा बयां करती है इतिहास जशपुर दशहरा

शक्ति की शाश्वत आराधना और सत्य की निर्बाध विजय का तुमुलनाद करता हुआ विजयादशमी का पर्व स्थानीय अनूठी जनजातीय परंपराओं से मिलकर जशपुर जिले की अविस्मरणीय सांस्कृतिक संपन्नाता का प्रतीक बनता जा रहा है। जिले सहित सीमावर्ती राज्यों के निवासियों के लिए भी जशपुर दशहरा एक महाउत्सव है, जिसे राज परिवार के 27 पीढ़ियों के साथ जिलेवासी उत्साह के साथ मनाते आ रहे हैं। जशपुर दशहरा को ऐतिहासिक रूप देने का उद्देश्य सिर्फ इसलिए नहीं है कि यहां के दशहरा उत्सव में एक स्थान पर जिले भर से बड़ी संख्या में लोग एकत्रित होते हैं। रियासत काल में जनजातीय समुदाय और तात्कालीन राजाओं का आपसी सामंजस्य इतना मजूबत था कि दस दिनों तक चलने वाले इस महा उत्सव में हर रीति रिवाज में समाज के सभी वर्ग की बराबर की भागीदारी है। नवरात्र के पहले दिन से लेकर रावण दहन तक के हर अनुष्ठान में समाज के हर वर्ग को जो जिम्मेदारी बांटी गई थी, उसे परिवार के सदस्य 27 पीढ़ियों से निभाते आ रहे हैं। जशपुर रियासत के उत्तराधिकारी रणविजय सिंह देव का मानना है कि दशहरा उत्सव जशपुर का महाउत्सव इसलिए भी है क्योंकि इस उत्सव में धर्म, जाति, संप्रदाय के बंधनों को काफी पीछे छोड़ यहां के निवासी एक स्थान पर सदभावना पूर्वक एकत्रित होकर असत्य पर सत्य की जीत के लिए एक दूसरे को शुभकामनाएं देते हैं।

दशहरा महोत्सव का शुभारंभ शारदीय नवरात्र के पहले दिन से यहां के सबसे पवित्र स्थल माने जाने वाले पक्की डाड़ी वृक्ष गंगा से प्रारंभ होता है। मान्यता अनुसार जिले की सत्ता को संचालित करने वाले देव बालाजी भगवान के मंदिर और काली मंदिर से अस्त्र-शस्त्रों को लाकर पूजा की जाती है। यह अनुष्ठान विश्व कल्याण की प्रार्थना के साथ राज परिवार के सदस्यों, आचार्य, बैगाओं और नागरिकों के द्वारा प्रारंभ किया जाता है। एक झांकी के रूप में पक्कीडाड़ी से पवित्र जल गाजे- बाजे के साथ देवी मंदिर मे लाया जाता है, जहां कलश स्थापना कर अखंड दीप प्रज्वलित की जाती है। इसी के साथ नियमित रूप से 21 आचार्य के मार्गदर्शन में राजपरिवार के सदस्य सहित नगर व ग्रामों से आए श्रद्वालु मां दुर्गा की उपासना वैदिक,राजसी और तांत्रिक विधि से करते हैं। अनुष्ठान में पूरे नवरात्र तक हजारों की संख्या में श्रद्वालु शामिल होते हैे।नवरात्र की पूजा यहां के आठ सौ साल पहले स्थापित काली मंदिर में होती है,जहां 21 आचार्य हर दिन विश्व कल्याण के लिए अनुष्ठान करते हैं।

सादगी के साथ निकलेगी भगवान बालाजी की शोभा यात्रा

जशपुर के दशहरा महोत्सव में भगवान बालाजी की विशेष महत्व होता है। लंका विजय और दशानन रावण का वध का नेतृत्व भगवान बालाजी ही करते हैं। मंदिर में विशेष पूजा अर्चना के बाद उन्हें लकड़ी से बने विशेष रथ में स्थापित किया जाएगा। एक रथ में जहां भगवान होते हैें, वहीं दूसरे रथ में पुरोहित व राज परिवार के सदस्य। बालाजी मंदिर से रवाना होकर,शोभा यात्रा रणजीता स्टेडियम में पहुंचती है। यहां कृत्रिम लंका का निर्माण किया जाता है, जिसमें रावण,कुंभकर्ण, मेघनाद व अहिरावण के पुतले होते हैं। भगवान हनुमान द्वारा लंका दहन किया जाता है। दहन के समय वनवासियों की परम्परा है कि वे पहले रावण के ज्ञान को नमन करते हैं। वहीं बाद में रावण के अहंकार का दहन कर पत्थर फेंकते हुए अपने आक्रोश भी व्यक्त करते हैं।

विजय कामना के साथ की जाती है अपराजिता पूजा

रावण दहन के दिन यहां अपराजिता पूजा का भी विशेष महत्व है। जिसे आचार्य व राजपरिवार के सदस्य करते हैं। आम लोगों की भी इसमें भागीदारी होती है। अपराजिता पूजा के पीछे मान्यता है कि रावण वध के समय भगवान श्रीराम ने अपराजिता पूजा की थी। इसी मान्यता के अनुसार अपराजिता पूजा की जाती है, जिसमें विशेष रूप से शस्त्रों की पूजा होती है। पूजा में शस्त्र बालाजी मंदिर से शोभा यात्रा में ही लाया जाता है। यह पूजा रियासत काल के उन पहलुओं का भी स्पर्श कराता है जो तात्कालिन रियासत की रक्षा के लिए अस्त्र, शस्त्र से परिपूर्ण शक्ति की उपासना से संबंधित है.

नीलकंठ दर्शन की अनूठी परंपरा

अपराजिता पूजा के बाद दशहरा के दिन अंतिम कार्यक्रम के रूप में रणजीता मैदान में भगवान के रथ से नीलकंठ पक्षी के उड़ाने की पंरपरा है। यह विशेष बैगा के द्वारा यहां के बालाजी मंदिर में लाया जाता है। इस दिन नीलकंठ पक्षी को देखना शुभ माना जाता है। इसके पीछे मान्यता है कि रावण वध के समय रावण ने हनुमान को उनके वास्तवित रूप में पहचान लिया था और हनुमान ने शिव के नीलकंठ रूप में दर्शन दिए थे। इसके बाद ही रावण को मुक्ति मिली थी। यहां के लोगों की मान्यता है कि यदि नीलकंठ पूर्व और उत्तर की ओर उड़ता है तो पूरे विश्व के लिए यह वर्ष शुभ होता है, वहीं नीलकंठ यदि अन्य दिशाओं की ओर उड़ता है तो प्राकृतिक आपदाओं सहित अन्य परेशानियों का संकेत होता है।

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