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*जहां रावण दहन नहीं होता है बल्कि युद्ध में मारा जाता है रावण…….ऐतिहासिक एवम पारम्परिक आरा दशहरा पर विशेष आलेख…..*

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जशपुरनगर। (सोनू जायसवाल की खास रिपोर्ट।)  जिला मुख्यालय से 18 किलोमीटर दूर आरा पंचायत में आज भी लगभग सात सौ साल पुरानी दशहरा महोत्सव की परंपरा जीवंत है। आरा दशहरा में जमींदारी काल में लगने वाले दरबार की झलक आज भी देखने को मिलती है। जमींदार के स्थान पर दरबार में अब देवताओं को स्थापित किया जाता है और लोग चढ़ावा चढ़ाते हैं।
आरा दशहरा का शुभारंभ शारदीय नवरात्र की सप्तमी को शस्त्र पूजा से होता है। नवमीं तिथि पर देवी गुड़ी दशहरा प्रांगण में गद्दी पर पगड़ी स्थापित की जाती है। साथ ही पुरातन तलवार और ढाल को सम्मान के साथ रखा जाता है। अनुयायी दरबार को देवताओं के दरबार के रूप में सम्मान देते हैं। यहां दो गद्दी और दो दरबार लगते हैं।

पहली गद्दी और दरबार नवमीं के दिन और दूसरी गद्दी और दरबार विजय दशमीं के दिन लंका दहन के बाद लगाया जाता है। नायक परिवार के उत्तराधिकारी लंकादहन के बाद आम लोगों से मिलते हैं, इसके बाद दरबार लगता है। दरबार में अनुयायी स्वेच्छा से मुद्रा समर्पित करते हैं। इसका उपयोग सेवकों को पारितोषिक के रुप में किए जाने की प्रथा है। समर्पण के बाद नायक परिवार के उत्तराधिकारी आगंतुकों को स्वल्पाहार और पान भेंट करते हैं।

यहां जमींदारी के दिनों में प्रयुक्त शस्त्र आज भी देवघरा पूजा स्थल में रखे हैं। आम लोगों के दर्शन के लिए वर्ष में दो बार दशहरा व रक्षाबंन पर्व पर निकाला जाता है। दशहरा पर शस्त्रों को विधिवत पूजा-अर्चना कर जलाशय खड़ोईन में बाजे-गाजे के साथ ले जाया जाता है। यहां आचार्य व बैगाओं द्वारा इसकी पूजा की जाती है, इसके बाद शस्त्रों की शोभायात्रा निकालकर आरागढ़ देवघरा के आंगन में लाया जाता है।

आरागढ़ में आरा नायक परिवार की महिलाएं इसकी आरती व चुमावन करती हैं, इसके बाद दशहरा महोत्सव स्थल देवीगुड़ी में शस्त्रों को पहुंचाया जाता है। यहां आसपास के दर्जनों गावों से आए ग्रामीण शस्त्रों का दर्शन करते हैं जो यहां सप्तमी से विजय दशमीं तक यहां रखे जाते हैं।

यहां चार दिन तक सुबह-शाम विधिवत पूजा-अर्चना की जाती है। दशमीं पर देवीगुड़ी में कृत्रिम लंका का निर्माण किया जाता है और रावण का दहन किया जाता है। इस दौरान हजारों की संख्या में लोगों के जुटते हैं। विजय दशमी पर यहां बाजे-गाजे के साथ विजय यात्रा निकाली जाती है। एकादशी को पुन : शस्त्रों की पूजा-अर्चना के पश्चात इसे देवघरा के आंगन में लाया जाता है, जहां महिलाएं पुन: आरती व चुमावन करती हैं । आचार्य-बैगाओं के साथ आरा नायक परिवार के सदस्य शस्त्रों को विशेष पूजा स्थल में स्थापित करते हैं।

युद्धकला का प्रदर्शन

दशहरा महोत्सव में प्राचीन युद्धकला की झलक और आरा नायक के शौर्य गाथा की झलक देखने को मिलती है। यहां की संस्कृति और परंपरा की पुष्टी वादकों द्वारा सुनाए जाने वाली कथा- कहानी से होती है। कार्यक्रम में जो वादक शामिल होते हैं, वे डोमवंश से जुड़े हैं ।

इनके पूर्वज डोम राजा के रियासत से सीे जुड़े थे और डोम वंश के पतन के बाद राजा सुजान राय के रियासत और आरा जमींदारी से जुड़ गए । ये अद्भूत शस्त्र कला का प्रदर्शन करते हैं। इस दौरान ऐसी धुन बजती है कि हर व्यक्ति में उत्साह का संचार होता है। ऐसी धुन युद्ध में तब सैनिकों को उत्साहित करने के लिए बजाई जाती थी। ढोल-नगाड़ों के साथ सिंग बाजा, डंका, नरसिंहा (रणभेरी) सहित कई वाद्य यंत्र इसमें शामिल हैं।

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