Connect with us
ad

Jashpur

*क्या है डिलिस्टिंग ?क्यों जरूरी है? डिलिस्टिंग पर विशेष आलेख ,उच्च न्यायालय के अधिवक्ता दिलमन मिंज की कलम से…..*

Published

on

 

सरकार के नीतियों और कानूनों के खिलाफ आंदोलनों को भारत जैसे प्रजातांत्रिक देशों में स्वस्थ परम्परा के रूप में देखा जाता है । ऐसा ही एक आंदोलन जनजातिय समूहों का डीलिस्टींग की मांग को लेकर जोर पकड़ता जा रहा है । इस आंदोलन के संदर्भ में डीलिस्टींग शब्द का भावार्थ सामान्य बोलचाल की भाषा में जात बाहर करने से लिया जा सकता है । यह आंदोलन इसाई अथवा इस्लाम धर्म में धर्मातंरित आदिवासियों को आरक्षण सहित सभी सरकारी सुविधाओं और लाभों से वंचित करने की मांग को लेकर है ।

वर्तमान डीलिस्टींग आंदोलन की बुनियाद 1960 के दशक में कार्तिक उरांव ने डाली थी । लेकिन महान स्वतंत्रता सेनानी और प्रसिद्ध जनजातिय नायक भगवान बिरसा मुण्डा ने धर्मातरण का विरोध कर इसाई मिशनरों के खिलाफ 19 वीं शताब्दी में ब्रिटिश शासन के समय से ही संघर्ष किया था । बिरसा मुण्डा और कार्तिक उरांव दोनों आदिवासियों के धर्मांतरण को मूल आदिवासी संस्कृति और धार्मिक परम्पराओं के खिलाफ एक साजिश के रूप में देखते थे । बिरसा मुण्डा ने स्वयं इसाई धर्म को छोड़कर धर्मांतरण के खिलाफ एक महान आंदोलन को जन्म दिया था , जिसका उद्देश्य आदिवासियों की मूल संस्कृति और धर्म की रक्षा करना था ।

1960 के दशक में पेशे से इंजीनियर और सांसद कार्तिक उरांव ने 322 लोकसभा सांसद और 26 राज्यसभा के सांसदों के समर्थन से अनुसूचित जनजाति आदेश संशोधन विधेयक 1967 को संसद में लाया था । इस विधेयक की मुख्य सिफारिश यह थी कि किसी बात के होते हुए भी कोई व्यक्ति जिसने जनजातिय आदिमत तथा विश्वासों को परित्याग कर दिया हो और इसाई या इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया हो , वह अनुसूचित जनजाति का सदस्य नहीं समझा जायेगा । वह विधेयक कभी कानूनी जामा नहीं पहन पाया और संसदीय परम्परा और राजनीति का शिकार हो गया ।

सरकार के नीतियों और कानूनों के खिलाफ आंदोलनों को भारत जैसे प्रजातांत्रिक देशों में स्वस्थ परम्परा के रूप में देखा जाता है । ऐसा ही एक आंदोलन जनजातिय समूहों का डीलिस्टींग की मांग को लेकर जोर पकड़ता जा रहा है । इस आंदोलन के संदर्भ में डीलिस्टींग शब्द का भावार्थ सामान्य बोलचाल की भाषा में जात बाहर करने से लिया जा सकता है । यह आंदोलन इसाई अथवा इस्लाम धर्म में धर्मातंरित आदिवासियों को आरक्षण सहित सभी सरकारी सुविधाओं और लाभों से वंचित करने की मांग को लेकर है ।

वर्तमान डीलिस्टींग आंदोलन की बुनियाद 1960 के दशक में कार्तिक उरांव ने डाली थी । लेकिन महान स्वतंत्रता सेनानी और प्रसिद्ध जनजातिय नायक भगवान बिरसा मुण्डा ने धर्मातरण का विरोध कर इसाई मिशनरों के खिलाफ 19 वीं शताब्दी में ब्रिटिश शासन के समय से ही संघर्ष किया था । बिरसा मुण्डा और कार्तिक उरांव दोनों आदिवासियों के धर्मांतरण को मूल आदिवासी संस्कृति और धार्मिक परम्पराओं के खिलाफ एक साजिश के रूप में देखते थे । बिरसा मुण्डा ने स्वयं इसाई धर्म को छोड़कर धर्मांतरण के खिलाफ एक महान आंदोलन को जन्म दिया था , जिसका उद्देश्य आदिवासियों की मूल संस्कृति और धर्म की रक्षा करना था ।

1960 के दशक में पेशे से इंजीनियर और सांसद कार्तिक उरांव ने 322 लोकसभा सांसद और 26 राज्यसभा के सांसदों के समर्थन से अनुसूचित जनजाति आदेश संशोधन विधेयक 1967 को संसद में लाया था । इस विधेयक की मुख्य सिफारिश यह थी कि किसी बात के होते हुए भी कोई व्यक्ति जिसने जनजातिय आदिमत तथा विश्वासों को परित्याग कर दिया हो और इसाई या इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया हो , वह अनुसूचित जनजाति का सदस्य नहीं समझा जायेगा । वह विधेयक कभी कानूनी जामा नहीं पहन पाया और संसदीय परम्परा और राजनीति का शिकार हो गया ।

इस संदर्भ में संविधान के अनुच्छेद -244 ( 1 ) और पांचवी अनुसूची की चर्चा आवश्यक है । जनजाति हितों की रक्षा के लिए संविधान में अनुसूचित क्षेत्रों तथा आदिवासी क्षेत्रों में प्रशासन के लिए विशेष व्यवस्था की गई है । अनुच्छेद -244 ( 1 ) भारत के राष्ट्रपति को यह अधिकार दता है कि वह किसी क्षेत्र को अनुसूचित क्षेत्र घोषित कर सकता है । उसे सम्बंधित राज्य के राज्यपाल के परामर्श के बाद नये अनुसूचित क्षेत्र घोषित करने या किसी वर्तमान अनुसूचित क्षेत्र के दायरे को कम या अधिक करने का अधिकार प्राप्त है ।

लेकिन इस तरह अनुसूचित क्षेत्र घोषित करने के लिए राष्ट्रपति के समक्ष मापदण्ड क्या है और उसका जनजातियों की • आबादी से क्या सम्बंध है , को समझना जरूरी है । पहले जनजातिय क्षेत्र और जनजातिय कमीशन जिसे ढेबर कमीशन भी कहा जाता है , ने अपनी रिपोर्ट 1960-61 में चार मापदण्ड अनुसूचित क्षेत्रों के निर्धारण के लिए दिये थे , जिसके पहले मापदण्ड का सम्बंध उस क्षेत्र में आदिवासियों की जनसंख्या की प्रधानता से था , जो कम से कम 50 प्रतिशत होना चाहिए था । बांकि तीन मापदण्डों का सम्बंध क्षेत्र विशेष और आकार और विकास से सम्बंधित था । जनजातिय मामलों के मंत्रालय ने अपने 2013 के रिपोर्ट ब्लॉक या तालुका और जिला को भी जनजातिय क्षेत्र घोषित करने के लिए आवश्यक मापदण्ड माना है ।

यदि केवल अनुसूचित क्षेत्र और अनुसूचित जनजाति की आबादी के सम्बंध में विचार करें , तो संविधान में अनसूचित क्षेत्र घोषित करने के लिए अधिकतम या न्यूनतम जनजातिय आबादी का प्रावधान नहीं किया गया है । ढेबर कमीशन के रिपोर्ट या किसी अन्य कमीशन की रिपोर्ट , संविधान का भाग नहीं है , वे मात्र मार्गदर्शक सिद्धांत की तरह है । जहां तक जनजातिय क्षेत्र में कम से कम 50 प्रतिशत जनजातिय आबादी के प्रावधान की बात है , यह मापदण्ड व्यावहारिक नहीं है ।

अनुसूचित क्षेत्रों के सम्बंध में 26 जनवरी 1950 , 21 नवम्बर 1975 , 31 दिसम्बर 1977 सहित 20 फरवरी 2003 और 11 अप्रेल 2007 के अधिसूचनाओं में आबादी में अधिकतम या न्यूनतम होने का कोई प्रावधान नहीं है । 1994 में भूरिया कमीटी ने इस तथ्य को उजागर किया था कि अनुसूचित क्षेत्र केवल 30 प्रतिशत जनजातिय जनसंख्या को कवर करते हैं । इसके अलावा जनजातिय क्षेत्रों से माईनिंग व रोजगार आदि कारणों से आदिवासियों का बड़ी संख्या में पलायन होना है ।

ऐसी स्थिति में अनुसूचित क्षेत्रों के निर्धारण में जनसंख्या का अनुपात को तत्कालीन व मौजूदा सरकारों ने व भारत के राष्ट्रपति ने भी सन् 1960-61 के ढेबर कमीशन के रिपोर्ट के उपरांत भी सन् 1977 , 2003 , 2007 व 2013 में नकार दिया है ।

संवैधानिक न्यायालय ने समता के वाद में भी अपने निर्णय में जनजातिय क्षेत्रों में जनजातियों की स्वायत्तता उनकी मूल धार्मिक परम्पराओं व संस्कृतियों को मान्यता देते हुए आर्थिक स्वावलंबन को संरक्षित करने को सर्वोच्च प्राथमिकता दिया है ।

पेशा अधिनियम 1996 अनुसूचित क्षेत्रों में स्थानीय प्रशासन के विषय में प्रावधान करता है । पेशा कानून की धारा 4 ( अ ) यह प्रावधान करता है कि पंचायतों के बारे में कानून बनाते समय राज्य सरकारें , रूढ़िगत विधि , सामाजिक और धार्मिक प्रथाओं और समुदाय के संसाधनों की परम्परागत पद्धतियों को मान्यता देगा , या उसके अनुरूप कानून बनायेगा । इसी तरह धारा 4 ( 1 ) यह प्रावधान करता है कि प्रत्येक ग्रामसभा आदिवासी लोगों की परम्पराओं और रूढ़ियों , उसकी सांस्कृतिक पहचान , समुदायों के संसाधनों और विवादों को निपटाने के रूढ़िगत ढंग का संरक्षण और परीक्षण करेगी ।

डीलिस्टींग का आंदोलन जनजातिय समूहों की इसी परम्परागत अधिकारों को संरक्षित रखने की दिशा में एक कदम है । वास्तव में जनजातियों को मिलने वाले सवैधानिक और कानूनी लाभ का उद्देश्य उनकी मूल धार्मिक , परम्परागत संस्कृति और मान्यताओं को बचाते हुए विकास की राष्ट्रीय धारा का लाभ जनजातियों तक पहुंचाना है ।

धर्मांतरण के कारण जनजातिय समूहों के लिए अपनी मूल धार्मिक , सांस्कृतिक व परम्परागत मान्यताओं को छोड़ रहे हैं , लेकिन आरक्षण सहित सभी सरकारी लाभ को प्राप्त कर रहे हैं , जो संविधान के मूल भावना के विरूद्ध है ।

लेखक परिचय दिलमन मिंज , अधिवक्ता , छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय बिलासपुर , मो . नं . 9754004959

Advertisement

RO NO- 12884/2

RO- 12884/2

RO-12884/2

Demo ad

RO- 12884/2

ad

Ad

Ad

Ad

Advertisement
Advertisement
Advertisement
Chhattisgarh3 years ago

*बिग ब्रेकिंग :- युद्धवीर सिंह जूदेव “छोटू बाबा”,का निधन, छत्तीसगढ़ ने फिर खोया एक बाहुबली, दबंग, बेबाक बोलने वाला नेतृत्व, बेंगलुरु में चल रहा था इलाज, समर्थकों को बड़ा सदमा, कम उम्र में कई बड़ी जिम्मेदारियां के निर्वहन के बाद दुखद अंत से राजनीतिक गलियारे में पसरा मातम, जिला पंचायत सदस्य से विधायक, संसदीय सचिव और बहुजन हिन्दू परिषद के अध्यक्ष के बाद दुनिया को कह दिया अलविदा..*

IMG 20240821 WA0000
Chhattisgarh3 months ago

*बिग ब्रेकिंग:- विदेशी नागरिक को भारत में अनुसूचित जनजाति की भूमि क्रय करने का अधिकार नहीं ,बेल्जियम निवासी एच गिट्स के द्वारा फर्जी ढंग से खरीदी गई भूमि को जनजाति के सदस्य वीरेंद्र लकड़ा को वापस करने का ऐतिहासिक निर्णय कलेक्टर जशपुर डा रवि मित्तल ने सुनाया………..*

Chhattisgarh3 years ago

*जशपुर जिले के एक छोटे से गांव में रहने वाले शिक्षक के बेटे ने भरी ऊंची उड़ान, CGPSC सिविल सेवा परीक्षा में 24 वां रैंक प्राप्त कर किया जिले को गौरवन्वित, डीएसपी पद पर हुए दोकड़ा के दीपक भगत, गुरुजनों एंव सहपाठियों को दिया सफलता का श्रेय……*