Jashpur
*भगवान बिरसा मुंडा, टाना भगत, अहोम आदि के आंदोलनों का सनातनी प्रथाओं के साथ घनिष्ठ संबंध:- गणेश राम भगत। राष्ट्रीय संयोजक ने की आदिवासी भाइयों से अपील, कहा राष्ट्र-विरोधी तथा आदिवासी विरोधी ताकतों की साजिश को समझ कर नाकाम करें ताकि एक मजबूत व स्थिर आदिवासी समुदाय व राष्ट्र बन सकें…..*
Published
3 years agoon
By
Rakesh Gupta
जशपुरनगर। अखिल भारतीय जनजाति सुरक्षा मंच के राष्ट्रीय संयोजक गणेश राम भगत ने आदिवासियों और भारत के विकास को रोकने के लिए, कुछ राष्ट्र-विरोधी ताकतों को लेकर गंभीर सवाल उठाए हैं। उन्होंने प्रेस विज्ञप्ति जारी करते हुए अपने विचार रखे और कहा कि ऐसे तत्व सक्रिय हैं जो आदिवासी नाम रखकर अपनी नई धार्मिक पहचान को छुपाते रहते हैं और गुप्त रूप से ईसाई धर्म का पालन व प्रचार प्रसार करते हैं। ऐसे लोग आजकल एक अभियान चला रहे हैं। वे यह झूठ फैलाते हैं की आदिवासी हिंदू नहीं है क्योंकि उनकी परंपराएं और रीति-रिवाज हिंदुओं से अलग हैं। जबकि यह जोर देकर कहा जा सकता है कि दुनिया का पहला सनातनी भारतीय आदिवासी ही था और गर्व की बात तो यह है की भारत में दुनिया की सबसे बड़ी आदिवासी आबादी रहती थी।
गणेश राम भगत ने कहा कि वास्तव में बाकी धर्मों के विपरीत, सनातनी/आदिवासी परम्पराओं एवं रीती-रिवाजों की जड़ें विविध हैं तथा उनका कोई एक संस्थापक नहीं है, बल्कि वे भारतीय संस्कृति व परंपराओं के संश्लेषण से बनी हैं। धार्मिक अनुष्ठानों और रीति-रिवाजों पर नजर डालने से पता चलता है। कि जनजातियों और हिंदुओं के कई रीति-रिवाज / अनुष्ठान एक जैसे हैं।
*आदिवासी संस्कृति और सनातन हिंदू संस्कृति दोनों ही अपने गोत्र में शादी नहीं करते*
गणेश राम भगत ने कहा कि आदिवासी संस्कृति और सनातन हिंदू संस्कृति दोनों ही अपने गोत्र में शादी नहीं करते दोनों संस्कृतियों के लिए श्री कृष्ण के भजन और भगवान राम शिव दुर्गा कृष्ण हनुमान नाग देवता पूजनीय हैं। दोनों ही संस्कृतियों में प्रकृति की पूजा होती है पीपल, अकेला बरगद, साल आदि को पवित्र माना जाता है। बहुत से आदिवासी राजाओं ने भगवान शिव विष्णु आदि के मंदिर बनवाए दोनों ही संस्कृतियों में भिन्न-भिन्न प्रकार के त्यौहार जैसे कि दशहरा होली दीपावली आदि मनाने की परंपरा है। दोनों ही संस्कृति या प्रकृति के पांच तत्वों की पूजा करती हैं तथा सिंदूर कुमकुम अबीर गुलाल हल्दी आदि का उपयोग भी होता है
आदिवासी संस्कृति में मूर्ति पूजा देखने को नहीं मिलती बहुत से हिंदू संप्रदाय में भी मूर्ति पूजा नहीं पाई जाती जैसे कि आर्य समाज सनातन हिंदू परंपरा में ईश्वर को निराकार रूप में भी देखा जाता है मूर्ति पूजा की शुरुआत बाद में हुई जो यह दिखाता है कि सनातन धर्म में बहुत लोच है।दोनों ही संस्कृतियों में कुल देवता होते हैं और शादियों में फेरे भी लिए जाते हैं
श्री भगत कहते हैं कि आदिवासी संस्कृति में बैगा नायक के पहन या देवरी पूजा कर आता है उसी तरह सनातनी परंपरा में पूजा पुजारी द्वारा कराई जाती है
नहीं संस्कृतियों में मरने के बाद जलाया या मिट्टी दिया जाता है।
मतभेदों के संबंध में यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि कई बार दो अलग जनजाति (781 से अधिक जनजातियां जैसे गोंडी, भीली, आदी, साड़ी, कोया पुनेम, सरना, बिडेन, आदि) या हिंदू धर्म के विभिन्न संप्रदाय के रीति-रिवाज भी मेल नहीं करते हैं। वास्तव में इस विविधता को भारत के बारे में एक बहुत प्रसिद्ध कहावत में ठीक ही इंगित किया गया है “कोस कोस पर पानी बदले चार कोस पर वाणी”। यह सनातन की सुंदरता रही है। यह अपने अनुयायियों को रीति-रिवाजों / अनुष्ठानों / पूजा के तरीकों की स्वतंत्रता की अनुमति देता है। हिंदू धर्म अपने अनुयायियों को किसी भी समय किसी भी तरह से किसी की भी पूजा करने की अनुमति देता है, जबकि अन्य धर्म बहुत कठोर हैं और अपने अनुयायियों को एक निश्चित सिद्धांत का पालन करने के लिए मजबूर करते हैं। हिंदू धर्म के साथ अपने मजबूत संबंधों के कारण आदिवासी भारत में फले-फूले एवं सुरक्षित रहे। इसके अलावा भगवान बिरसा मुंडा, ताना भगत, अहोम आदि के आंदोलनों का भी सनातनी प्रथाओं के साथ घनिष्ठ संबंध था।
एक और तर्क यह है कि अंग्रेजों ने आदिवासियों को अलग कोड दिया था जिसे आजादी के बाद हटा दिया गया था। सभी जानते हैं कि अंग्रेजों के मन में कभी भी कोई नीति बनाते समय मूलनिवासियों का हित नहीं था। उनका एक ही मकसद था कि अपने शासन को लंबे समय तक बनाए रखने के लिए समाज को विभाजित किया जाए। यहां तक कि महात्मा गांधी और अन्य कांग्रेसी नेताओं ने भी अंग्रेजों के इस कदम का विरोध किया था। उन्होंने आदिवासियों को ‘जीववादी’ (aboriginal) के रूप में वर्गीकृत करने की भी निंदा की थी। उन्होंने आगे कहा कि अंग्रेजों द्वारा ऑस्ट्रेलिया के मूल लोगों के खिलाफ अपमानजनक शब्द के रूप में सबसे पहले आदिवासियों का इस्तेमाल किया गया था। एक और महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या अंग्रेजों की ऐसी संहिता ने आदिवासियों की मदद की? उत्तर एक जोरदार ना है। वास्तव में स्वतंत्रता के बाद ही भारतीय संविधान में आदिवासियों को अनुसूचित जनजाति के रूप में मान्यता दी गई थी और सरकार ने उनके सामाजिक-आर्थिक-शैक्षिक उत्थान के लिए कई नीतियां बनाई।
वर्तमान समय में आदिवासी ऐसी नीतियों का लाभ उठा रहे हैं, जिससे राष्ट्र विरोधी एवं निहित तत्वों को परेशानी है क्योंकि वो जानते हैं कि अब उनका विभाजनकारी एजेंडा काम नहीं करेगा। इसलिए वे आदिवासियों के बीच मोहभंग पैदा कर उन्हें राष्ट्रीय मुख्यधारा/विकास से अलग करने के लिए नए और कमजोर तर्क तैयार कर रहे हैं।
राष्ट्रीय संयोजक गणेश राम भगत ने कहा कि इन निहित स्वार्थी द्वारा इंगित एक और कारण यह है कि हिंदू विवाह अधिनियम जैसे कई कानून आदिवासियों पर लागू नहीं होते हैं। उन्हें पता होना चाहिए कि हिंदू विवाह अधिनियम व कुछ अन्य अधिनियम आदिवासियों पर इसलिए लागू नहीं होते हैं क्योंकि भारतीय संविधान ने उन्हें अपने प्राचीन रीति रिवाजों/ अनुष्ठानों का अभ्यास/रक्षा करने का अधिकार दिया है। एक और झूठ फैलाया जा रहा है कि खुद को हिन्दू मानने से आदिवासी तथाकथित शूद्र बन जाएंगे। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि जातिवाद और छुआछूत हिंदू धर्म में सबसे बड़ी सामाजिक बुराइयां थीं। लेकिन कई आदिवासी कुलों जैसे गोड, भील आदि को राजपूतों के रूप में माना जाता था। वे आदिवासी, जो राष्ट्रीय मुख्यधारा से अलग-थलग रहे, उन्हें पांचवा वर्ण या अवर्ण माना जाता है। इतिहास के सावधानीपूर्वक अध्ययन से पता चलता है कि अन्य धर्मों के आगमन से पहले हिंदुओं ने वर्ण व्यवस्था (पेशे के आधार पर वर्गीकरण) का अभ्यास किया न कि जाति व्यवस्था का। वेदों व अन्य ग्रंथों में भी जाती का कहीं जिक्र नहीं है, केवल वर्ण का जिक्र है। ऐसा लगता है कि आक्रमणकारियों/ धार्मिक शाखाओं ने हिन्दू धर्म के वास्तविक इतिहास को तोड़ मरोड़ कर पेश किया और उन्होंने हिन्दू धर्म में घुसपैठ कर वर्ण व्यवस्था को जाति-व्यवस्था/अस्पृश्यता में परिवर्तित कर दिया। अन्यथा भारतीय इतिहास में आदिवासियों और तथाकथित शूद्रों के असंख्य राजाओं को कोई कैसे समझा सकता है। इसके अलावा समकालीन दुनिया में एक व्यक्ति का कद और सम्मान उसकी शिक्षा और आर्थिक स्थिति पर आधारित होता है, न कि उसकी जाति पर!
एक झूठ यह फैलाया जा रहा है की अदालत ने कहा है की आदिवासी हिन्दू नहीं हैं, जबकि अदालत ने आदिवासियों को इस देश का मूलनिवासी मान उनके रीति-रिवाजों/अनुष्ठानों को माना, पर ऐसा कभी नहीं कहा की आदिवासी हिन्दू नहीं हैं। एक और तुच्छ तर्क यह है कि अलग कोड से जनजातीय आबादी की मात्रा का निर्धारण करने में मदद मिलेगी। जनगणना फॉर्म में अनुसूचित जाति व जनजाति के लिए पहले से ही एक कॉलम है। सरकार ने जनजातीय मामलों के मंत्रालय का गठन किया है और यह जनजातीय उत्थान के लिए कई नीतियां का कार्यान्वयन कर रही है। एक झूठ यह फैलाया जा रहा है कि जनगणना के प्रारूप में ‘अन्य’ का कॉलम हटा दिया गया जबकि ऐसा कुछ नहीं किया गया है।
श्री भगत ने कहा कि यह केवल निर्दोष आदिवासियों को भड़काने व गुमराह करने के लिए प्रचारित किया जा रहा है। राष्ट्र-विरोधी ताकतों के इस अभियान को धर्मातरण करने वाली ताकतों के उन वर्गों का गुप्त समर्थन/मार्गदर्शन है जो भ्रमित करना, राजी करना और धर्मातरित करना (Confuse, Convince and Convert) की नीति का पालन करने में विशेषज्ञ हैं। आदिवासियों को उनकी धार्मिक पहचान के बारे में अमित कर उन्हें यह समझाने का प्रयास किया जा रहा है कि वे हिन्दू नहीं हैं। एक बार ऐसा हो जाने के बाद उनका धर्मांतरण आसान हो जाएगा। इसके अलावा, यह आदिवासियों की संख्यात्मक ताकत को कम करने की एक चाल भी प्रतीत होती है क्योंकि उनमें से कुछ जनगणना अभ्यास में ‘अन्य’ कॉलम के तहत खुद का उल्लेख कर सकते हैं। ये उन्हें भारत में धार्मिक अल्पसंख्यक बना सकते हैं। एक बार जब हिन्दू आदिवासियों की संख्या कम हो जाएगी और वें अनुसूचित जनजाति से होने के लाभ को खो देंगे तो ये ईसाई आदिवासी उनका लाभ छीनना शुरू कर देंगे। ये धार्मिक अल्पसंख्यक और अनुसूचित जनजाति, दोनों का लाभ ले रहे हैं और आगे और भी लेंगे। इसके अलावा, आदिवासी हिंदू धर्म के सबसे मजबूत स्तंभ थे क्योंकि उन्होंने आक्रमणकारियों द्वारा कई अत्याचारों और जातिवाद / अस्पृश्यता के रूप में अपने स्वयं के भाइयों की उदासीनता के बावजूद हिंदू धर्म को कभी नहीं छोड़ा। ऐसे में राष्ट्र-विरोधी ताकतों का उद्देश्य आदिवासियों को हिन्दू धर्म से दूर कर उस स्तंभ को कमजोर करना है। श्री भगत ने कहा कि ऐसे में मेरा आदिवासी भाइयों से विनम्र निवेदन है कि ऐसी राष्ट्र-विरोधी तथा आदिवासी विरोधी ताकतों की साजिश को समझ कर नाकाम करें ताकि एक मजबूत व स्थिर आदिवासी समुदाय व राष्ट्र बन सके।