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Jashpur

*विशेष साप्ताहिक संपादकीय कॉलम “झरोखा मन का”…, स्थानीय भाषा में प्रारंभिक शिक्षा देने के फ़ायदे और चुनौतियां*

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– विक्रांत पाठक

जीवन के लिए आधारभूत ‘रोटी, कपड़ा और मकान’ के बाद जो चीज सबसे ज़रूरी है,वह है शिक्षा। अच्छी शिक्षा ही जीवन के विभिन्न उद्देश्यों को प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त करती है। शिक्षा अच्छी से अच्छी, बोधगम्य, विद्यार्थियों के कौशल और बौद्धिक विकास करने वाली हो, इसके लिए सरकारें शिक्षा नीति बनाती हैं। जिनमें समय-समय पर बदलाव भी होते रहते हैं। अभी हाल में ही केंद्रीय कैबिनेट ने नई शिक्षा नीति को स्वीकृति दी है। जिसमें एक महत्वपूर्ण बात यह है कि अब 5 वीं तक के बच्चों को मातृ भाषा, स्थानीय भाषा या राष्ट्र भाषा में ही शिक्षा दी जाएगी। दूसरी कोई भाषा चाहे वह अंग्रेजी ही क्यों न हो एक सब्जेक्ट के रूप में पढ़ाई जाएगी। यह एक बहुत महत्वपूर्ण कदम है और इसके कई फ़ायदे हैं। जिसकी चर्चा हम आगे करेंगे। यह त्रिभाषा सूत्र ही है।
शिक्षा में त्रिभाषा सूत्र की सिफारिश कोठारी समिति ने की थी। कोठारी आयोग का गठन डॉ. दौलत सिंह कोठारी की अध्यक्षता में भारत सरकार ने वर्ष 1964 में किया था, जिसने अपनी रिपोर्ट 1966 में सरकार को सौंपी। जिसे 1968 में स्वीकृत किया गया था। इसका उद्देश्य यह था कि छात्र अधिक भाषाएं सीख सकें, जिससे वे हमारे बहुभाषी देश में जहां पर भी रहें, वहां पर उन्हें भाषायी समस्या न हो। त्रिभाषा सूत्र के तहत भारतीय स्कूलों में तीन भाषाओं की शिक्षा दी जाने की सिफारिश की गई थी जो इस प्रकार हैं:-
पहली भाषा: मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा। दूसरी भाषा: हिंदी भाषी राज्यों में आधुनिक भारतीय भाषा या अंग्रेजी। गैर हिंदी भाषी राज्यों में हिंदी या अंग्रेजी। तीसरी भाषा: हिंदी भाषी तथा गैर हिंदी भाषी दोनों राज्यों में अंग्रेजी या एक आधुनिक भारतीय भाषा। आधुनिक भारतीय भाषाओं में बांग्ला, कन्नड़, तेलुगू, मराठी, पंजाबी, तमिल, आदि भाषाएं शामिल हैं।
स्कूल में बच्चे की प्रारंभिक शिक्षा जिस भाषा में हो, यह ज़रूरी है कि घर में भी बच्चों को वैसा ही माहौल अभिभावकों से मिलना चाहिए। जिससे वह चीजों को बेहतर तरीके से जान सके। बच्चों के लिए उस भाषा में वार्तालाप का तारतम्य बना रहे, पर अधिकतर ऐसा नहीं हो पाता। अपने बच्चे को शुरु से ही अच्छे इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़ाने की चाहत रखकर अभिभावक उनका एडमिशन तो ऐसे स्कूलों में करा देते हैं, पर कई बार अभिभावक अंग्रेजी अच्छे से नहीं समझने के कारण, अपनी व्यस्तता या अन्य कारणों से बच्चे को वह माहौल घरों में दे नहीं पाते। जिसके चलते अभिभावक बच्चे को स्कूल की पढ़ाई के ही भरोसे छोड़ देते हैं या फिर ट्यूशन के भरोसे। ट्यूशन और उसका होमवर्क, स्कूल के होमवर्क के बीच बच्चे का बचपन खोता जाता है और अधिक मानसिक दबाव के चलते बच्चे कई समस्याओं से घिरने लगते हैं। इधर, कहने को तो कई सरकारों ने भी इंग्‍लिश मीडियम स्‍कूल खोल दिए हैं लेकिन इस बात की गारंटी लेने वाला कोई भी नहीं है कि यहां पर अच्‍छे स्‍तर की शिक्षा दी भी जाती है या नहीं। अक्सर माता-पिता अपने बच्‍चों को इंग्‍लिश मीडियम स्‍कूल में डालते हैं ताकि वो अच्‍छी इंग्‍लिश बोल सकें और उनका कैरियर इस लैंग्‍वेज की वजह से ठप्‍प ना हो जाए,लेकिन इंग्‍लिश मीडियम स्‍कूलों में पढ़ने के बावज़ूद बहुत सारे बच्‍चे अंग्रेजी में कमजोर रह जाते हैं।
कवि भारतेंदु हरिश्चंद्र ने कहा है:-

“अंग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन…पै निज भाषा ज्ञान बिना, रहत हीन को हीन”

हम आज अंधानुकरण में भारी-भरकम फीस देकर अपने बच्चों को अंग्रेजी मीडियम स्कूलों में पढ़ाते तो हैं, इसके बाद भी बच्चों को घर में उचित माहौल व समय नहीं देने के कारण उन्हें अच्छे सुसंस्कृत नागरिक बनाने में सफल नहीं हो पाते हैं। अब यह सोचने का समय है कि हम अपनी मातृ भाषा, स्थानीय भाषा और राष्ट्रभाषा के माध्यम से एकजुट होकर अनेकता में एकता का परिचय कैसे दें। अंग्रेजी भाषा से व्यवसायिक तौर पर निश्चित ही लाभ उठाया जा सकता है, लेकिन दैनिक जीवन में इसे सीमित किया जा सकता है। नई शिक्षा नीति में त्रिभाषा सूत्र स्वागत योग्य कदम है। असल में बच्चे की पढ़ाई ऐसी भाषा में हो जिसे बच्चा समझता हो। अगर बच्चे की पढ़ाई ऐसी भाषा में हो रही है, जिसमें वह अटक-अटक कर पढ़ रहा है। किसी पाठ को बग़ैर समझे पढ़ रहा है तो जाहिर सी बात है कि वह उस विषय से जुड़ा ज्ञान अर्जित नहीं कर पाएगा। हो सकता है कि वह तथ्यों को रट ले, मगर जब समझ के साथ किसी सवाल का जवाब देने की बात आएगी तो वह बच्चा पीछे रह जाएगा। अंग्रेजी या हिंदी मीडियम का चुनाव भी इसी आधार पर होना चाहिए ताकि वह बच्चे के लिए फायदेमंद हो। इस विषय पर अभिभावकों को भी गंभीरता विचार करना होगा।

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