जशपुर/सन्ना:-छतीसगढ़ प्रदेश में प्राचीन काल के बहुत से अवषेस आज भी देखने मिलते हैं।जहां आस्था विश्वास के साथ साथ पुरातत्व का काफी सम्भावनाएं भी है।ठीक ऐसा ही हमारे प्रदेश में जशपुर जिला है जहां आस्था विश्वास के साथ साथ हजारों साल पुराने , प्राचीन काल की बहुत से साक्ष्य देखने को मिल जाती है।हर तरफ पुरातत्व का भण्डार दिखता है।आपको बता दें कि जशपुर जिला का इतिहास काफी प्राचीन माना जाता है।आज हम इसी प्राचीनता का बहुत बड़ा साक्ष्य आपको दिखाने और बताने जा रहे हैं।

हम बात कर रहे हैं जशपुर जिले के बगीचा ब्लाक अंतर्गत सन्ना तहसील के देउरकोना गांव की जहां जंगलों के बीच बसा हजारों साल पुराना एक मंदिर है जिसे देउरमन्दिर के नाम से लोग जानते हैं।यह स्थान यहां का सिर्फ आस्था विश्वास का केंद्र नही बल्कि यहां देखेंगे तो यहां बहुत ही अजीबों तरह के चीजें आपको देखने को मिलेगी। जो इन दिनों ना तो बना पाना सम्भव है और ना ही देखना।यहां पुरातत्व का बहुत सा ऐतिहासिक साक्ष्य आज भी देखने को मिलता है।बस इन पर पुरातत्व के अनुसंधान की जरूरत है।इसी मंदिर की जानकारी लगने पर हम ग्राउंड जीरो न्यूज की टीम के साथ मन्दिर के पास पहुंचे और वहां मौजूद ग्रामीणों से मन्दिर पर चर्चा भी किये।मंदिर का दीवाल बहुत बड़ा-बड़ा पत्थर से बनाया गया है जिसे एक दो व्यक्तियों द्वारा उठा पाना सम्भव नही दिखता है।मन्दिर के दीवालों के सामने हिन्दू देवी देवताओं के बहुत से कलाकृतियां भी बनी हुई है जिसको देख कर मन मोहित हो उठता है।यह मंदिर काफी छतिग्रस्त होता जा रहा है और यही स्थिति रहा तो ऐसा लग रहा था जैसे एक दो वर्ष में यह अति प्राचीन मंदिर पूरी तरह विलुप्त हो जायेगा।ग्रामीण बताते हैं कि इस मंदिर में भगवान शिव की पूजा अर्चना होती थी और आज भी पूर्वजों के बताए अनुसार पूजा अर्चना करते है।ग्रामीणों का दावा है कि यह मंदिर लगभग आठवीं शताब्दी का है।हालांकि इसकी पुष्टि अब तक नही हो सकी है फिर भी मन्दिर तो काफी प्राचीन है जिसका संरक्षण अति आवश्यक दिखता है।यहां पुरातात्वीक अनुसन्धान भी होना जरूरी है।

आपको बता दें कि इस मंदिर का अग्रभाग क्षतिग्रस्त हो चुका है।परंतु इस मंदिर के गर्भगृह तथा शिखर अभी भी सुरक्षित हैं।शिखर में कई सारी कलाकृतियां बने हुए हैं जिनमें प्रमुख रूप से कई देवी-देवताओं जैसे लक्ष्मी, कृतिमुखा,गणेश जी,हाथी स्पष्ट रूप से देखे जा सकते हैं। बताया जाता है कि इस मंदिर के गर्भगृह से भी इसके प्रमुख देवता गायब हो चुके हैं।बताया जाता है कि यह मंदिर लाल बालूआ पत्थर से निर्मित है।ग्रामीण बताते हैं कि मंदिर के अगल-बगल के क्षेत्रों में वर्षा के दिनों में कभी-कभार लाल पक्की हुई ईंटें भी निकल आती है। ये ईंटें भी साइज में काफी बड़े आकार की है। इस क्षेत्र में यदि पुरातात्विक शोध कार्य तथा उत्खनन कराया जाए,तो निश्चित तौर पर इस क्षेत्र की ऐतिहासिक साक्ष्य सामने आएंगे।क्षेत्र में किस राजवंश का शासन था? उसका राज्य विस्तार जशपुर में किन क्षेत्रों तक था?इन क्षेत्रों को पर्यटन के क्षेत्र में भी बढ़ावा देने के दिशा में प्रशासन कार्य कर सकती है। क्योंकि यह हमारी विरासत है।इसे भावी पीढ़ी तक पहुंचाना भी हमारा कर्तव्य है।झारखण्ड के गुमला से लेकर सरगुजा तक कई ऐसे मन्दिर हैं जो कहीं कहीं देखने को मिलता है।जो एक ही डिजाइन और एक ही काल मे निर्मित मन्दिर प्रतीत होता है जो प्राचीन काल मे ऐतिहासिक राजवंश की उपस्थिति को दर्शाता है।
*बहरहाल ग्रामीणों की मान्यता जो कुछ भी हों परन्तु जब हमने देउरमन्दिर के विषय मे पुरातत्व विभाग के विशेषज्ञ अजय कुमार चतुर्वेदी से बात किया तो उन्होंने कहा कि यह मन्दिर कलचुरी कालीन का दिखता है जो लगभग 13 वीं 14 वीं शताब्दी के आस पास का प्रतीत होता है। देउरमन्दिर के नाम पर है तो कहीं न कहीं यहां भगवान शिव की आराधना की जाती होंगी।हालांकि देउरकोना गांव के इस मंदिर में जो साक्ष्य देखने को मिल रहा है इसका तत्काल संरक्षण होना चाहिए ताकि आने वाले पीढ़ी और विद्यार्थियों को इतिहास की जानकारी मिल सके।*
